भारत का उन्नत धातुशास्त्र
- प्रशांत पोळ
हमारे
भारत में, जहां-जहां भी प्राचीन सभ्यता के प्रमाण मिले हैं (अर्थात नालन्दा, हडप्पा, मोहन
जोदड़ो, तक्षशिला, धोलावीरा, सुरकोटड़ा, दायमाबाग, कालीबंगन इत्यादि), इन सभी स्थानों पर खुदाई
में प्राप्त लोहा, तांबा, चाँदी, सीसा इत्यादि धातुओं की शुद्धता का प्रतिशत ९५% से लेकर ९९% है. यह
कैसे संभव हुआ? आज से चार, साढ़े चार हजार वर्ष पहले इन धातुओं को इतने शुद्ध स्वरूप में
परिष्कृत करने की तकनीक भारतीयों के पास कहाँ से आई?
प्राचीनकाल
में भारत को ‘सुजलाम सुफलाम’ कहा जाता था. हमारा देश अत्यंत संपन्न था. स्कूलों
में पढ़ाया जाता है कि प्राचीनकाल में भारत से सोने का धुआँ निकलता था. भारत को
सोने की चिड़िया कहा जाता था. ज़ाहिर है कि अपने देश में भरपूर सोना था. अनेक विदेशी
प्रवासियों ने अपने अनुभवों में लिख रखा है कि विजयनगर साम्राज्य के उत्कर्ष काल
में हम्पी के बाज़ार में सोना और चाँदी को सब्जी की तरह आराम से बेचा जाता था.
उससे
थोड़ा और पहले के कालखण्ड में हम जाएं तो अलाउद्दीन खिलजी ने जब पहली बार देवगिरी
पर आक्रमण किया था, तब पराजित हुए राजा रामदेवराय ने उसे कुछ मन स्वर्ण दिया था. इसका
अर्थ यही है कि प्राचीनकाल से ही भारत में सोना, चाँदी, ताम्बा, जस्ता
इत्यादि धातुओं के बारे में जानकारी तो थी ही, बल्कि
उन्हें शुद्ध करने की प्रक्रिया भी संपन्न की जाती थी.
मजे की
बात यह कि बहुत से लोगों को पता ही नहीं है कि, विश्व की
अत्यंत प्राचीन, और आज की तारीख में भी उपयोग की जाने वाली सोने की खदान भारत में है.
सोने की इस खदान का नाम है ‘हट्टी’. कर्नाटक के उत्तर-पूर्व भाग में स्थित यह
स्वर्ण खदान रायचूर जिले में है. सन १९५५ में ऑस्ट्रेलिया के डॉक्टर राफ्टर ने इस
खदान में मिले लकड़ी के दो टुकड़ों की कार्बन डेटिंग करने से यह पता चला कि यह खदान
लगभग दो हजार वर्ष पुरानी है. हालाँकि संभावना यह बनती है कि यह खदान इससे भी
पुरानी हो सकती है. वर्तमान में आज भी इस खदान से ‘हट्टी गोल्डमाईन्स लिमिटेड’
नामक कम्पनी सोने का खनन करती है.
इस खदान
की विशिष्टता यह है कि लगभग दो हजार वर्ष पहले यह खदान २३०० फुट गहराई तक खोदी गई
थी. अब सोचिये कि यह उत्खनन कैसे किया गया होगा...? कई
विशेषज्ञों का मानना है कि यह खनन कार्य ‘फायर सेटिंग’ पद्धति से किया गया. अर्थात
धरती के अंदर चट्टानों को लकड़ियों में आग लगाकर गर्म किया जाता है, और उस पर
अचानक पानी डालकर ठंडा किया जाता है. इससे उस स्थान पर धरती में दरारें पड़ जाती
हैं. इस प्रक्रिया से बड़े-बड़े चट्टानी क्षेत्रों में दरारें डालकर उन्हें फोड़ा
जाता है. इसी खदान में ६५० फुट गहराई वाले स्थान पर एक अत्यंत प्राचीन ऊर्ध्वाधर
शाफ्ट मिला है, जो यह दर्शाता है कि धातु खनन के क्षेत्र में भारत का प्राचीन कौशल्य
कितना उन्नत था.
परन्तु
केवल सोना ही क्यों...? लोहा प्राप्त करने के लिए लगने वाली बड़ी विशाल भट्टियाँ और उनकी
तकनीक भी उस कालखण्ड में बड़ी मात्रा में उपलब्ध थीं. इसी पुस्तक में ‘लौहस्तंभ’
नामक लेख में हमने दिल्ली के कुतुबमीनार प्रांगण में खड़े लौह स्तंभ के बारे में
चर्चा की है. वह स्तंभ लगभग डेढ़-दो हजार वर्ष पुराना है, परन्तु
आज भी उसमें आंधी -बारिश के बावजूद रत्ती भर की जंग भी नहीं लगी है. इक्कीसवीं
शताब्दी के वैज्ञानिक भी उस अदभुत लौह स्तम्भ का रहस्य पता नहीं कर पाए हैं और
आश्चर्यचकित हैं कि स्वभावतः जिस लोहे में जंग लगती है, तो इस
लोह स्तंभ में जंग क्यों नहीं लगती?
इसी
लौहस्तंभ के समान ही पूरी तरह ताम्बा धातु से बनी ७ फुट ऊँची एक बुद्ध मूर्ति है.
यह मूर्ति चौथी शताब्दी की है और फिलहाल लन्दन के ब्रिटिश संग्रहालय में रखी है.
बिहार में खुदाई में प्राप्त इस मूर्ति की विशेषता यही है कि इसका ताम्बा खराब ही
नहीं होता, एक समान चमचमाता रहता है.
हाल ही
में राकेश तिवारी नामक पुरातत्त्वविद ने गंगा किनारे कुछ उत्खनन किया, जिससे यह
जानकारी प्राप्त हुई कि ईसा पूर्व लगभग २८०० वर्ष पहले से ही भारत में परिष्कृत
किस्म का लौह तैयार करने की तकनीक और विज्ञान उपलब्ध था. इससे पहले भी उपलब्ध हो
सकती है, परन्तु लगभग ४८०० वर्ष पहले के प्रमाण तो प्राप्त हो चुके हैं.
इसी
प्रकार छत्तीसगढ़ के ‘मल्हार’ में कुछ वर्षों पहले जो उत्खनन हुआ उसमें अथवा
उत्तरप्रदेश के दादूपुर में ‘राजा नाल का टीला’ तथा लहुरादेव नामक स्थान पर किए
उत्खनन में ईसा पूर्व १८०० से १२०० वर्षों का लोहा और तांबा से बने अनेक बर्तन एवं
वस्तुएँ मिली हैं जो एकदम शुद्ध स्वरूप की धातु है.
ईसा
पूर्व तीन सौ वर्ष, लोहा / फौलाद को अत्यंत परिष्कृत स्वरूप में बनाने वाली अनेक
भट्टियाँ दक्षिण भारत में मिली हैं. आगे चलकर इन भट्टियों को अंग्रेजों ने
क्रूसिबल टेक्नीक (Crucible Technique) नाम दिया. इस पद्धति में
शुद्ध स्वरूप में लोहा, कोयला और कांच जैसी सामग्री मूस पात्र में लेकर उस पात्र (बर्तन) को
इतना गर्म किया जाता है कि लोहा पिघल जाता है तथा कार्बन को अवशोषित कर लेता है.
इसी उच्च कार्बनिक लोहे को अरब लड़ाकों ने ‘फौलाद’ का नाम दिया.
वाग्भट्ट
द्वारा लिखित ‘रसरत्न समुच्चय’ नामक ग्रन्थ में धातुकर्म हेतु लगने वाली
भिन्न-भिन्न आकार-प्रकार की भट्टियों का वर्णन किया गया है. महागजपुट, गजपुट, वराहपुट, कुक्कुटपुट
और कपोतपुट जैसी भट्टियों का वर्णन इसमें है. इन भट्टियों में डाली जाने वाली गोबर
के कंडों की संख्या एवं उसी अनुपात में निर्मित होने वाले तापमान का उल्लेख भी
इसमें आता है. उदाहरणार्थ, महागजपुट भट्टी के लिए गोबर के २००० कंडे लगते थे, जबकि कम
तापमान पर चलने वाली कपोतपुट भट्टी के लिए केवल आठ कंडों की आवश्यकता होती थी.
आज के
आधुनिक फर्नेस वाले जमाने में गोबर पर आधारित भट्टियाँ अत्यधिक पुरानी तकनीक एवं
आउटडेटेड कल्पना लगेगी. परन्तु ऐसी ही भट्टियों के माध्यम से उस कालखंड में
लौहस्तंभ जैसी अनेकों अदभुत वस्तुएँ तैयार की गईं, जो कि आज
के आधुनिक वैज्ञानिक भी निर्मित नहीं कर पाए हैं.
प्राचीनकाल
की इन भट्टियों द्वारा उत्पन्न होने वाली उष्णता को मापने का प्रयास आधुनिक काल
में हुआ. इन ग्रंथों में लिखे अनुसार ही, वैसी
भट्टियाँ तैयार करके, उनसे उत्पन्न होने वाली गर्मी को नापा गया, जो कि
वैसी ही निकली जैसी उस ग्रन्थ में उल्लेख की गई थी. ९००० से अधिक प्रकार की उष्णता
के लिए वाग्भट ने मुख्यतः चार प्रकार की भट्टियों का वर्ना किया हुआ है –
१. अंगारकोष्टी
२. पातालकोष्टी
३. गोरकोष्टी
४. मूषकोष्टी
इन
भट्टियों में से पातालकोष्टी का वर्णन धातुशास्त्र में उपयोग किए जाने वाले आधुनिक
‘पिट फर्नेस’ के समान ही है.
विभिन्न
धातुओं को पिघलाने के लिए भारद्वाज मुनि ने ‘बृहद विमानशास्त्र’ नामक ग्रन्थ में
५३२ प्रकार के लुहारों के औजारों की रचना का वर्णन किया हुआ है. इतिहास में दमिश्क
नामक स्थान की तलवारें प्रसिद्ध होती थीं, उनका
लोहा भी भारत से ही निर्यात किया जाता था. अनेक विदेशी प्रवासियों ने अपने लेखन
में कहा है कि भारत में ही अत्यंत शुद्ध किस्म का तांबा और जस्ता निर्मित किया
जाता था.
भारत में
बहुत प्राचीनकाल से तांबे का उपयोग किया जाता रहा है. भारत में ईसा पूर्व तीन चार
सौ वर्ष पहले तांबे का उपयोग किए जाने के प्रमाण मिल चुके हैं. हडप्पाकालीन तांबे
के बर्तन भी मोहन जोदड़ो सहित अनेक स्थानों की खुदाई में प्राप्त हुए हैं. आज
पाकिस्तान में स्थित बलूचिस्तान प्रांत में प्राचीनकाल में तांबे की अनेक खदानें
थीं, इसका उल्लेख एवं प्रमाण मिले हैं. इसी प्रकार राजस्थान में खेत्री
नामक स्थान पर प्राचीनकाल में तांबे की अनेक खदानें थीं इसका भी उल्लेख कई ग्रंथों
में मिलता है. अब यह सभी मानते हैं की विश्व में तांबे का धातुकर्म सर्वप्रथम भारत
में ही प्रारंभ हुआ. मेहरगढ़ के उत्खनन में तांबे के ८००० वर्ष पुराने नमूने मिले
हैं. उत्खनन में ही अयस्कों से तांबा प्राप्त करने वाली भट्टियों के भी अवशेष मिले
हैं तथा फ्लक्स के प्रयोग से लौह को आयरन सिलिकेट के रूप में अलग करने के प्रमाण
भी प्राप्त हुए हैं.
जस्ता
(जिंक) नामक धातु का शोध भारत में ही किया गया है, यह बात
भी हम में से कई लोगों की जानकारी में नहीं है. ईसा पूर्व नौवीं शताब्दी में
राजस्थान में जस्ते का उपयोग किए जाने के कई प्रमाण मिल चुके हैं. इससे भी अधिक
महत्वपूर्ण बात यह है कि इतिहास में अब तक ज्ञात जस्ते की सर्वाधिक प्राचीन खदान
भी भारत के राजस्थान में ही है.
जस्ते की
यह प्राचीनतम खदान ‘जावर’ नामक स्थान पर है. उदयपुर से ४० किमी दूर यह खदान आज भी
जस्ते का उत्पादन करती है. आजकल ‘हिन्दुस्तान जिंक लिमिटेड’ की ओर से यहाँ
पर जस्ते का उत्खनन किया जाता है. ऐसा कहा जाता है कि, ईसा
पूर्व छठवीं शताब्दी में भी जावर की यह खदान कार्यरत थी. इस बारे में प्रमाण मिल
चुके हैं. हालांकि जस्ता तैयार करने के लिए अत्यंत कुशलता, जटिलता
एवं वैज्ञानिक पद्धति आवश्यक है, परन्तु भारतीयों ने जस्ता
निर्माण की प्रक्रिया में प्रवीणता एवं कुशलता हासिल कर ली थी. आगे चलकर ‘रस
रत्नाकर’ ग्रन्थ लिखने वाले नागार्जुन ने जस्ता बनाने की विधि को विस्तृत स्वरूप
में लिखा हुआ है. आसवन (डिस्टिलेशन), द्रावण
(लिक्विफिकेशन) इत्यादि विधियों का भी उल्लेख उन्होंने अपने ग्रंथ में किया है.
इन
विधियों में खदान से निकले हुए जस्ते के अयस्क को अत्यंत उच्च तापमान (९०० डिग्री
सेल्सियस से अधिक) पर पहले पिघलाया जाता है (boiling). इस
प्रक्रिया से निकलने वाली भाप का आसवन (डिस्टिलेशन) किया जाता है. उसे ठंडा करते
हैं एवं इस प्रक्रिया से सघन स्वरूप में जस्ता (जिंक) तैयार होता है.
यूरोपीय
देशों में सन १७४० तक जस्ता नामक धातु के उत्पादन एवं निर्माण की प्रक्रिया की कतई
जानकारी नहीं थी. ब्रिस्टल में व्यापारिक पद्धति से तैयार किए जाने वाले जस्ते की
उत्पादन प्रक्रिया बिलकुल भारत की ‘जावर’ प्रक्रिया के समान ही थी. अर्थात ऐसा कहा
जा सकता है कि भारत में उत्पन्न होने वाले जस्ते की प्रक्रिया को देखकर ही यूरोप
ने, शताब्दियों के पश्चात उसी पद्धति को अपनाया और जस्ते का उत्पादन
आरम्भ किया.
कुल
मिलाकर कहा जा सकता है कि भारत के धातुशास्त्र का विश्व के औद्योगिकीकरण में एक
महत्वपूर्ण हिस्सा है. सन १००० के आसपास जब भारत वैश्विक स्तर पर उद्योग जगत का
बादशाह था, उस कालखंड में विभिन्न धातुओं से बनी वस्तुओं का निर्यात बड़े पैमाने
पर किया जाता था. विशेषकर जस्ता और हाई कार्बन स्टील में तो भारत उस समय पूरे
विश्व से मीलों आगे था तथा बाद में भी इस विषय की तकनीक और विज्ञान भारत ने ही
दुनिया को दिया.
धातुशास्त्र
के वर्तमान विद्यार्थी केवल इतनी सी बात का स्मरण रख सकें तो भी बहुत है...!!
- प्रशांत
पोळ
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