'विश्व मूल निवासी दिवस' : एक सोची-समझी साजिश
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इधर कुछ वर्षों से अपने देश में 9 अगस्त को 'विश्व मूल निवासी दिवस' मनाए जाने का चलन काफी तेजी से बढ़ा है । बाहरी शक्तियों द्वारा थोपे गए किसी 'दिवस' को भेड़चाल का हिस्सा बन कर अंगीकार कर लेने से पहले उसकी पृष्ठभूमि की जानकारी कर उसके औचित्य पर चिंतन कर लिया जाता तो अच्छा होता । आइए चलते हैं हम जनजाती लोगों को केंद्र में रखकर गढ़े गए इस 'विश्व मूल निवासी दिवस' की अवधारणा की पृष्ठभूमि की ओर ।
पंद्रहवीं शताब्दी का अंतिम दशक । कैथलिक मिशनरियों की आर्थिक सहायता से कोलंबस भारत के व्यापारिक मार्गों की खोज में समुद्री यात्रा पर निकलता है तथा भटक कर गलती से अमेरिका के पूर्वी तट पर जा पहुंचता है । वह तारीख थी 12 अक्तूबर 1492। वह उसे ही 'इंडिया' (भारत) समझ बैठता है और वहां के लोगों को 'इंडियन' । उस समय अमेरिकी महाद्वीप पर मुख्य रूप से पांच तरह के मूल निवासियों का आधिपत्य था - चेरोकी, चिकासौ, चोक्ताव, मस्कोगी और सेमिनोल । इस समुद्री मार्ग का पता लगने के बाद स्पेनियों, पुर्तगालियों तथा अंग्रेजों ने अमेरिका पहुंच कर वहाँ अपना साम्राज्य स्थापित करने की योजना बना ली । अमेरिका का भू-भाग विशाल होने के कारण इसके सुदूर इलाकों में स्थानीय निवासियों से संघर्ष करते हुए अंग्रेजों को 100 साल से भी ज्यादा लग गए । तीन प्रमुख युद्धों की श्रृंखला में प्रथम दोतरफा युद्ध अंग्रेजों को आज के वर्जीनिया प्रान्त में पवहाटन आदिवासियों से करना पड़ा था, वह तारीख थी 9 अगस्त 1610, जिसमें पवहाटन कबीले के सारे लोग लड़ते हुए मारे गए । इस कबीले की हार से उत्साहित अंग्रेजों को फिर भी अमेरिका पर अपना आधिपत्य जमा पाने में जब अपेक्षित सफलता नहीं मिली तो मिशनरियों द्वारा स्थानीय मूल निवासियों से मुफ्त शिक्षा व इलाज के नाम पर उनसे सह सम्बन्ध बनाए गए, उन्हें सिविलाइज किया गया और फिर सेना में भर्ती कर उन्हें आपस में लड़ाया गया । ब्रिटिश सेना प्रमुख सर जेफ्री आर्म्स्ट के नेतृत्व में विश्व के पहले रासायनिक युद्ध के द्वारा छोटी चेचक, टी बी, काॅलरा तथा टाइफायड जैसी घातक बीमारियों के विषाणु कम्बल, रूमाल व कपड़ों के माध्यम से फैलाकर लगभग 80% मूल निवासियों को तड़पा कर मार डाला गया । इस प्रकार सन् 1775 तक अंग्रेजों ने अमेरिका पर अपना आधिपत्य लगभग कायम कर लिया था तथा 13 उपनिवेशों पर उनकी पूरी तरह हुकूमत स्थापित हो गई थी । फिर भी अभी अमेरिका का अधिकांश भू-भाग उनके आधिपत्य से अछूता था ।
हेनरी नोक्स और जाॅर्ज वाशिंगटन के नेतृत्व में पहला ब्रिटिश अमेरिकी युद्ध हुआ जिसमें सफलता अमेरिका को मिली । पेरिस की संधि के अंतर्गत उपनिवेश अमेरिका को मिला किंतु अन्य भू-भागों को कब्जा करके उन्हें आपस में बाँट लेने की भी संधि हुई । 'इंडियन रिमूवल ऐक्ट 1830' के अंतर्गत सभी मूल निवासियों को मिसीसिपी नदी के उस पार धकेल दिया गया । इस संघर्ष में 30 हजार लोग रास्ते में ही मर गए । यह घटना 'आंसुओं की रेखा'(The Trail of Tears) नाम से जानी जाती है । इस दरम्यान इतने लोग मर गए कि केवल 5% मूल निवासी ही जिन्दा बचे थे ।
कोलंबस के अमेरिका आने की 'पंच शताब्दी' के अवसर पर 12 अक्तूबर 1992 को एक बड़ा समारोह मनाने की तैयारी चल ही रही थी कि उक्त के विरोध में 'कोलंबस गो बैक' नाम से एक अभियान चलाया गया । परिणामतः जन-विरोध को शांत करने की दृष्टि से उक्त तिथि को अमेरिका का 'मूल निवासी दिवस' घोषित किया गया ।
भारत के कुल भू-भाग का 21% वनक्षेत्र है जिसके 60% भाग में जनजातियां निवास करती हैं । भारत की जनसंख्या का लगभग 8% जनजाती समाज है । 'अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन' जो कि 'संयुक्त राष्ट्र संघ' की एक संस्था है, द्वारा 1989 में आयोजित वैश्विक सम्मेलन जिसे ' मूलनिवासियों का अधिकार सम्मेलन, 169' [ Rights of Indigenous People Convention, 169 ] नाम दिया गया, को विश्व के 189 में से केवल 22 ने स्वीकार किया जिसका मुख्य कारण 'मूलनिवासी' (Indigenous People) शब्द को स्पष्ट रूप से परिभाषित न किया जाना था । भारत ने भी हस्ताक्षर नहीं किया क्योंकि भारत यह मानता है कि यहाँ रहने वाले सभी लोग यहाँ के मूल निवासी हैं तथा अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन मूल निवासियों के जिन अधिकारों की बात कर रहा है, उससे कहीं ज्यादा अधिकार भारत ने यहाँ रहने वाले सभी निवासियों को अपने 'संविधान' के माध्यम से दे रखा है ।
संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा भी 12 अक्तूबर को ही 'विश्व मूल निवासी दिवस' घोषित किए जाने की योजना थी लेकिन अमेरिका में हुए विरोध को देखते हुए ऐसा न करके दूसरी तिथि का विकल्प तलाशा जाने लगा जिसमें अंग्रेजों द्वारा पवहाटन आदिवासियों के साथ किए गए प्रथम युद्ध, जिसमें पवहाटन कबीले के आदिवासियों की हार के कारण ब्रिटिश सत्ता वर्जीनिया प्रान्त में स्थापित हो सकी थी तथा ईसाई धर्म प्रचार की शुरुआत वहाँ की जा सकी थी, की तारीख '9 अगस्त' को सबसे उपयुक्त माना गया । 9 अगस्त को 'विश्व मूल निवासी दिवस' घोषित करने का मुख्य कारण यही था, किंतु गुप्त षड्यंत्र के तहत दुनिया के लोगों को भ्रमित करने के उद्देश्य से इसे अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन द्वारा 'मूल निवासियों' पर गठित एक वर्किंग ग्रुप 'WGIP' [ Working Group on Indigenous Populations ] की पहली बैठक जो 1982 में 9 अगस्त को हुई थी, के आधार पर घोषित किया जाना दर्शाया गया ।
9 अगस्त की तारीख का भारत के जनजाती इतिहास से कोई सम्बन्ध नहीं है और न ही विश्व के किसी अन्य भाग के जनजातियों के उत्थान से इसका कोई वास्ता है । यदि है, तो इसका सम्बन्ध अमेरिका के मूल निवासियों के विनाश से है । परंतु कितनी विडंबना है कि भारत के जनजाती समाज बिना जाने-समझे एक भेड़चाल का हिस्सा बन कर 9 अगस्त को 'विश्व मूल निवासी दिवस' के रूप में मानते और मनाते हैं । यह हमारा दुर्भाग्य ही है कि बिरसा मुंडा जैसे क्रान्तिवीर पैदा करने वाला देश का जनजाती समाज आज इन कुत्सित चालों को समझ नहीं पा रहा है या किन्हीं निहित स्वार्थ या लालच के वशीभूत ईसाई मिशनरियों तथा वामपंथी आन्दोलन के छलावे में आकर ' 9 अगस्त - विश्व मूल निवासी दिवस' मनाने को तत्पर है । आज यह बात किसी से छिपी नहीं है कि किस प्रकार ईसाई मिशनरियां मुफ्त शिक्षा व मुफ्त इलाज के नाम पर आदिवासियों का धर्म परिवर्तन कराने में लगी हुई हैं ।
रही-सही कोर-कसर पूरा करने में वामपंथी लगे हुए हैं । सर्वहारा के हित की बात करने वाला 'साम्यवाद' क्रांति के सिद्धांत पर चलता है । क्रांति के लक्ष्य को पाने के लिए 'समस्या' का होना आवश्यक है । यदि 'समस्या' नहीं है तो 'समस्या' पैदा करो, ये इनकी सोच है तथा यही इनकी कार्यपद्धति है । माओवादियों द्वारा भारत के विभिन्न राज्यों में रह रहे भिन्न-भिन्न जनजाती समाजों को एक अलग 'मूलनिवासी' पहचान देकर भारत के संविधान के खिलाफ एक हथियारबंद क्रान्ति के रास्ते उनकी समस्याओं का निदान कराने के नाम पर अलगाववाद का जहर फैलाया जा रहा है । विभिन्न जनजाती इलाकों में महिषासुर दिवस, रावण-दहन विरोध, दुर्गापूजा विरोध जैसे कार्यक्रमों का अस्तित्व में आना इसका जीता-जागता उदाहरण है । 'एक संस्कृति' के अंग तथा 'सह-अस्तित्व' के रूप में हजारों साल से साथ रह रहे होने के बावजूद अन्य समाज को जनजातियों का दुश्मन सिद्ध करने की पूरी कोशिश वामपंथियों द्वारा की जा रही है । 'भारत तेरे टुकड़े होंगे' जैसे नारे व आन्दोलन इस कुत्सित कोशिश की बानगी मात्र हैं ।
झारखंड का खूंटी क्षेत्र महान स्वतंत्रता सेनानी शहीद बिरसा मुंडा की जन्मस्थली के रूप में जाना जाता है । मुंडा समाज अपने को धरती से उत्पन्न मानता है इसलिए मृत्यु के उपरान्त इनमें मृत शरीर को जमीन में गाड़ने की प्रथा है । दफनाने के बाद उक्त स्थान पर एक बड़ा पत्थर गाड़े जाने की परंपरा है जिसे 'ससंदिरी' कहते हैं । 'पेसा ऐक्ट' के प्रति जागरूकता बढ़ाने की दृष्टि से आई ए एस अधिकारी श्री डी बी शर्मा तथा आई पी एस अधिकारी बूंदी ओरांव द्वारा पत्थरों पर 'पेसा ऐक्ट' के महत्वपूर्ण नियम स्थानीय भाषा में लिखे जाने का चलन प्रारम्भ करते हुए इसे 'पत्थलगड़ी' नाम दिया गया । किंतु कालान्तर में विघटनकारी माओवादी ताकतों द्वारा इस क्षेत्र के कुछ गांवों में पत्थरों पर इस आशय के संदेश लिखकर गाड़े जाने लगे कि ''भारत के कानून इन गांवों में लागू नहीं हैं । किसी भी बाहरी व्यक्ति का प्रवेश वर्जित है ।'' अब तक लगभग 40 गांवों में इस तरह की 'पत्थलगड़ी' तथा हथियारबंद घेरेबंदी की घटनाएं हो चुकी हैं । यहां ध्यान देने योग्य है कि इस इलाके में 9 अगस्त के दिन 'विश्व मूल निवासी दिवस' पिछले कई सालों से 'चर्च' की अगुवाई में मनाया जाता रहा है जिसमें भारत विरोधी विचारों का जोर-शोर से प्रचार किया जाता है । पत्थलगड़ी की घटनाएं इन अंतर्राष्ट्रीय मूल निवासी षड्यन्त्रों का ही परिणाम हैं ।
अंतर्राष्ट्रीय ताकतें भारत के जनजाती समाज को देश से तोड़ने के षड्यंत्र में लगी हुई हैं तथा 'विश्व मूल निवासी दिवस' मनाने के लिए प्रोत्साहित करना इनके इसी षड्यंत्र का एक हिस्सा है।
सजग हम तो सुरक्षित राष्ट्र !
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संजय कुमार राव
सदस्य, प्रान्तीय प्रचार टोली
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, गोरक्ष प्रान्त
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