@ डॉ. अपर्णा ललिंगकर
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धार्मिक आधार पर 14 अगस्त को देश का विभाजन हुआ और स्वतंत्र हिंदुस्थान बना। विभाजन से पहले भी हिंदू-मुस्लिम दंगे हो रहे थे। खासकर उत्तर भारत और उत्तर पश्चिम भारत में दंगे विशेष रूप से उग्र थे। विभाजन के बाद पाकिस्तान यानी सिंध और पंजाब प्रांत में जो हिंदू थे उन्हें अपने घर, संपत्ति वहीं पर छोड़कर ज्यों का त्यों भारत आना पड़ा। इसमें भी हजारों हिंदुओं को लूट और बलात्कार का सामना करना पड़ा। जब 15 अगस्त को देश स्वतंत्रता प्राप्त होने पर मिठाईयां बांट रहा था, उसी समय कई हिंदू पाकिस्तान और सीमावर्ती इलाकों में मारे जा रहे थे। इस सबसे जो स्वयं को बचा सकें, उन्हें भी भारत मेंआने के बाद भी शरणार्थियों के शिविरों में ही रहना पड़ा। विभाजन के सारे दुष्परिणाम हम तक कभी उतनी तीव्रता से पहुंचे ही नहीं। इतिहास में जो कुछ भी वह हम तक ऐतिहासिक पुस्तकें, ऐतिहासिक घटनाओं पर आधारित फिल्में, श्रृंखलाएं, नाटक; पाठ्यक्रम का इतिहास इनके द्वारा पहुंचता है।
हमारे यहां पाठ्यक्रम में इतिहास देखा जाएं तो उसमें जो घटा हैं वैसा ही नहीं दिया जाता। हमारे यहां के इतिहास के पुस्तकों में मुगलों ने क्या किया, अंग्रेजों ने क्या किया, कुछ स्वतंत्रता के संघर्ष के विषय में तथा उसके बाद विभाजन होकर देश को स्वतंत्रता मिली, स्वतंत्रता के बाद कांग्रेस का कामकाज आदि इतिहास लिखा है। इसमें हमारा स्थानीय इतिहास तो सचमुच 1-2 वाक्यों में लपेटा गया है या बिल्कुल नहीं दिया गया है। महाराष्ट्र में शिवाजी महाराज का इतिहास पर्याप्त रूप से पता है, लेकिन कश्मीर का इतिहास, राजस्थान, पंजाब, गुजरात, असम, ओडिशा, बंगाल और दक्षिण के राज्यों के इतिहास के बारे कोई जानकारी नहीं। यही तो अन्य राज्यों के बारे में कहा जा सकता है। दक्षिणी राज्यों में कश्मीर, असम, पश्चिम बंगाल, राजस्थान, पंजाब, गुजरात इन राज्यों का इतिहास सीखाया ही नहीं जाता।
कन्नड़ भाषा के लेखक एस. एल. भैरप्पा का एक लेख काफी पहले मैंने पढ़ा था जिसमें उन्होंने यह खुलासा किया था। लगभग 60 के दशक में वे ‘एनसीईआरटी’ में रीडर के रूप में थे। साथ ही इतिहास पाठ्यक्रम बोर्ड के सदस्य भी थे। पहली ही बैठक में बोर्ड के अध्यक्ष ने कहा, कि मुसलमानों ने भारत में हिंदुओं पर जो अत्याचार किए है वे हमें इतिहास के पाठ्यक्रम में नहीं देने हैं। क्योंकि फिर से हिंदू - मुस्लिम भेद निर्माण होगा और बड़े-बड़े दंगे होंगे।
भैरप्पा ने इसका पूरी तरह से विरोध किया। उनका कहना था, कि इतिहास में जो कुछ भी हुआ और जैसा हुआ वह वैसा ही लिखना चाहिए। यदि भारतीय मुसलमान समझते हैं कि मुगलों और अन्य मुस्लिम आक्रमणकारियों ने क्या किया है, तो वे अधिक सौहार्दपूर्ण होंगे और सच्चा इतिहास सभी तक पहुंचेगा। लेकिन बोर्ड के अध्यक्ष को यह मंजूर नहीं था क्योंकि उन्हें नेहरू से वैसे आदेश थे। उन्होंने भैरप्पा की उस बोर्ड की सदस्यता ही रद की। अगर बाकी इतिहास के साथ ऐसा है, तो विभाजन का बहुत ही खूनी और दमनकारी इतिहास कौन लिखेगा? इसका दुष्परिणाम यह हुआ है, कि हममें से कईयों को विभाजन का सच, लोगों पर हुए अत्याचार, देश का सच्चा इतिहास नहीं पता होता। इसलिए कश्मीर में अलगाववादी जब भारत से कश्मीर को अलग करने की मांग करते हैं, तो हममें से ही कई युवा कहते है, क्या आपत्ति है कश्मीर को अलग राष्ट्र बनाने में या पाकिस्तान को देने में? वैसे भी वहां हिंदू कम ही है। लेकिन वे जानते, कि कश्मीर के अधिकांश हिंदुओं को सालों साल या तो मार डाला गया है वर्ना उनका धर्मांतरण किया गया है अन्यथा उन्हें देश के अन्य भागों में भगाया गया है।
पाकिस्तानने विभाजन के बाद तुरंत कश्मीर पर आक्रमण कर आज जिसे पाक अधिकृत कश्मीर कहते है उस पर कब्जा जमाया। वास्तव में, भारतीय सेना ने नेहरू से कहा था, कि उसे फिर पाया जा सकता है, आप सिर्फ आदेश दिजिए। लेकिन लेकिन नेहरू ने पाकिस्तान के साथ समझौता किया और कश्मीर समस्या पैदा की। इसके अलावा, 370 और 35 ए धाराओं का समावेश कर (कहा कि ये अस्थायी हैं) यह सुनिश्चित किया, कि कश्मीर समस्या कायम रहे। इसके दूरगामी प्रभावों को हमने बड़ी मात्रा में झेला है और झेल रहे हैं। अर्ध सत्य और विजेताओं की नजर का यही इतिहास पढ़कर जो प्रशासनिक सेवा में जाते है उनकी मानसिकता क्या होगी, इसकी कल्पना ही की जा सकती है!
नेहरू ने ‘डिस्कवरी ऑफ इंडिया’ पुस्तक लिखी थी। लेकिन ऐसा नहीं, कि उसमे लिखा हुई हर बात सही थी। उसमें शिवाजी महाराज का उल्लेख नेहरू ने ' दक्षिण का एक लुटेरा राजा' इस तरह किया था। जब यह पुस्तक प्रकाशित हुई तब यह बातें ध्यान में आई और फिर इस पर जोर दिया गया, कि उसमें सब कुछ दिया गया है या नहीं इसकी बजाय कम से कम जो दिया है वह गलत न हो। नेहरू को उनकी पुस्तक की गलती सुधारने के लिए कहा गया।
लेकिन इससे एक ही दिखता है, कि ऐतिहासिक घटनाओं पर आधारित पुस्तक लिखते समय भी अगर लेखक ने ही गलत जानकारी अथवा आधी-अधूरी जानकारी दी तो उसके दूरगामी परिणाम हो सकते हैं। बांग्लादेश के विभाजन पर बांग्लादेशी लेखिका तस्लीमा नसरीन द्वारा लिखित 'लज्जा' उपन्यास में ऐसा भयानक वर्णन है कि इसे पढ़ना मुश्किल होता है। अर्थात् यह सत्य ही है इसलिए इस पुस्तक पर प्रतिबंध लगा कर तस्लीमा को देश छोड़ने के लिए कट्टरवादियों ने मजबूर किया। हमारे यहां गोपाल गोडसे द्वारा लिखित 'पचपन करोड़ के बली' (पंचावन्न कोटींचे बळी) पुस्तक में विवरण दिये हैं, कि विभाजन के समय क्या हुआ क्योंकि नाथुराम गोडसे ने गांधीजी का वध क्यों किया इसका उत्तर देते समय उसका मूल कारण देना आवश्यक था। लेकिन इस पुस्तक और उस पर आधारित नाटक ‘मी नथुराम बोलतोय’ इन दोनों पर तत्कालीन सरकार ने प्रतिबंध लगाया था। नतीजा यह है कि सच्चाई हम तक पहुंची ही नहीं।
‘पंचावन्न कोटींचे बळी’ यह पुस्तक पढ़ने से पहले बेन किंग्जले अभिनित 'गांधी' फिल्म मैंने देखी थी। उसमें विभाजन का हिस्सा दिखाया है, लेकिन वह भी गांधीजी के दृष्टिकोण से। इसलिए, इतना ही समझा, कि विभाजन के समय हिंदू - मुस्लिम दंगे हुए थे लेकिन कोई विवरण नहीं दिखाए गए थे। विभाजन का और बाद में गांधी हत्या से पूर्व की घटनाओं का गांधीजी के दृष्टिकोण से समर्थन ही दिखाया गया था। जब मैंने गोडसे की किताब पढ़ी, तो मुझे सच्चाई समझ में आई। फिल्म माध्यम में भी निर्देशक और निर्माता की इच्छा के अनुसार दृष्टिकोण से इतिहास दिखाया जाता है।सच्चा इतिहास इस कारण कभी हम तक नहीं पहुंचता है। इसी में मुसलमानों की भूमिका का उदात्तीकरण करने की प्रतिस्पर्धा सी लग जाती है। यानी जो इतिहास के पाठ्यक्रम के साथ हुआ वही यहां भी होता है। दीपा मेहता ने ‘अर्थ’ फिल्म बनाई थी उसमें भी मुसलमानों की भूमिका का महीमा मंडन और हिंदुओं का बुरा चित्रण किया गया था। ‘पिंजर’, ‘गदर’ जैसी फिल्मों में विभाजन के संदर्भ में थोड़ा-बहुत सच दिखाया गया था लेकिन वह भी फिल्मी अंदाज में और ये फिल्में कितने लोगों ने देखी, यह एक अलग ही सवाल है।
टीवी श्रृंखलाओं में भी ‘बुनियाद’ नामक धारावाहिक यद्यपि विभाजन के समय की कथा दिखाता था, पर वह काफी सौम्य रूप से दिखाई गई। उसमें मुख्य रूप से विभाजन के बाद कांग्रेस में स्वतंत्रता सेनानियों से संबंधित राजनीति दिखाई गई थी। विभाजन के दौरान समय की थोड़ी बहुत कल्पना हम कर सकते हैं। 'तमस' नामक गोविंद निहलानी का धारावाहिक सीधे विभाजन के दौरान दंगों का खूनी सच दिखाता था। लेकिन, उस पर भी अपेक्षा के अनुरूप सरकार ने प्रतिबंध लगाया वह आज तक जारी है। पंजाब, उत्तर प्रदेश, दिल्ली, हरियाणा आदी स्थानों पर तथा कश्मीर में विभाजन के बाद जो कोई जान बचाकर भारत में आ सकें, उनके कारण कम से कम वहां के स्थानीय लोगों में जानकारी फैली होगी। लेकिन हमारे यहां ऐसे लोग मिलना कठिन है। मुंबई में कभी-कभार कुछ सिंधी लोग मिलेंगे जिनके दादा कराची से समुद्र द्वारा आए इसलिए अपनी थोड़ी सी संपत्ति और मां-बहनों की अब्रू बचा सकें।
सही इतिहास न पहुंचने का परिणाम यह होता है, कि नई पिढ़ी स्वतंत्रता की कीमत नहीं जानती। उनकी धारणा यह बनती है, कि स्वतंत्रता सत्याग्रह करने से मिला हुआ पुरस्कार है। विभाजन के दौरान पाकिस्तान के हिंदुओं ने, खासकर सीमावर्ती क्षेत्र के हिंदुओं ने, क्या भुगता है इसका जरा भी अंदेशा उन्हें नहीं होता। कथित छद्म धर्मनिरपेक्षता के नाम पर गांधीजी ने विभाजन के समय मुसलमानों पर अत्याचार नहीं होने दिया लेकिन लाखों हिंदुओं से चाहे जैसा बर्ताव किया पर उनकी ओर ध्यान नहीं दिया। यह सच कभी भी न जानने के कारण देश में कथित सत्याग्रह के सिद्धांत को ये लोग सिर पर उठाते हैं। आज ऐसी झूठी धर्मनिरपेक्षता के कारण, हिंदूस्थानात के हिंदूंओं को स्वयं को गर्व से हिंदू कहलवाने में शर्म आती है। ऐसा कोई कहे तो भी उसे तुरंत ‘कम्युनल’ ठहराया जाता है। लेकिन इन्हें मुसलमान धर्म के नाम पर धर्मनिरपेक्ष भारत में आरक्षण, सरकारी योजनाओं के लाभ, स्वतंत्र मुस्लिम पर्सनल लॉ जैसे लाभ मिलते हैं फिर भी ये लोग पाकिस्तान की प्रशंसा करते है। इसमें कुछ गैर है यह कोई देखता नहीं।
अल्पसंख्यकों के नाम पर इन्हें अल्पसंख्यकों के शैक्षिक संस्थान चलाने के लिए अनुदान मिलता है... उन शिक्षा संस्थानों में पढ़नेवालों का इमान सिर्फ मुस्लिम धर्म से होता है, न कि हमारे देश से। इस सबमें हमारे हिंदू लोगों को कुछ गैर नहीं लगता... उन्हें नहीं लगता कि यह अन्यायपूर्ण है। इसी कारण ऐसे अलगाववादी मुसलमानों ने पापुलर फ्रंट ऑफ इंडिया जैसे आतंकवादी संगठनों का जाल पूरे देश में फैलाकर आज की घड़ी में सीएए, एनपीआर और समान नागरिक कानून जैसे देश हित के कानून को विरोध जताकर, देश में दंगों और आगजनी का वातावरण बनाया जाता है और फिर भी हमारे ही लोग इस मनोवृत्ति पर सवाल नहीं उठाते। कथित धर्मनिरपेक्षता की चादर आंखों पर ओढ़कर ऐसा व्यवहार करते हैं मानो सब कुछ ठीक है। बाहरी आक्रामकों ने हमारे मंदिर गिराकर हमारी सांस्कृतिक धरोहर नष्ट करने की कोशिश की, लेकिन देश के हिंदुओं को उसके विरोध में आवाज उठाना भी चोरी हो गया है। अगर सच्चा इतिहास हमें बता दिया गया होता तो आज स्थिति इतनी खराब नहीं होती। हमें ही यह काम देरी से ही सही लेकिन हाथ में लेना होगा। जैसे ज्यू लोगों के इतिहास की जानकारी उन्होंने अपने अगली पिढियों तक पहुँचाने का काम किया और आज भी कर रहे हैं वैसा ही हमें अपनी अगली पिढियों को अवश्य अपना सच्चा इतिहास बताना चाहिए और उन्हें उनकी अगली पिढ़ी को। बाल-बच्चों को वह बताना चाहिए इसका आग्रह करना ही होगा।
(लेखिका बेंगलुरु स्थित IIITB स्थित शोधकर्ता है तथा सोशल मीडिया, साप्ताहिक, समाचार पत्र और दीवाली अंकों में विभिन्न विषयों पर लेखन करती हैं।)
©️ विश्व संवाद केंद्र, देवगिरी
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